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पढ़ने लिखने में रुचि रखती हूँ । कई समसामयिक मुद्दे मन को उद्वेलित करते हैं । "परिसंवाद" मेरे इन्हीं विचारों और दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति है जो देश-परिवेश और समाज-दुनिया में हो रही घटनाओं और परिस्थितियों से उपजते हैं । अर्थशास्त्र और पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर | हिन्दी समाचार पत्रों में प्रकाशित सामाजिक विज्ञापनों से जुड़े विषय पर शोधकार्य। प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ( समाचार वाचक, एंकर) के साथ ही अध्यापन के क्षेत्र से भी जुड़ाव रहा | प्रतिष्ठित समाचार पत्रों के परिशिष्टों एवं राष्ट्रीय स्तर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लेख एवं कविताएं प्रकाशित | सम्प्रति --- समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन । प्रकाशित पुस्तकें------- 'देहरी के अक्षांश पर', 'दरवाज़ा खोलो बाबा', 'खुले किवाड़ी बालमन की'

ब्लॉगर साथी

04 August 2017

बच्चों का दोस्त बनना ठीक है ...पर उनके के माँ-बाप भी बने रहिये

साइबर दुनिया के किसी गेम के कारण जान दे देने की बात हो या बच्चों की अपराध की दुनिया में दस्तक | नेगेटिव बिहेवियर का मामला हो या लाख समझाने पर भी कुछ ना समझने की ज़िद |  परवरिश के हालात मानो बेकाबू होते दिख रहे हैं | जितना मैं समझ पाई हूँ हम समय के साथ बच्चों के दोस्त तो बने पर घर के बड़े और उनके  अभिभावक होने के नाते जो  मर्यादित सख़्ती  (जी मैं सोच-समझकर सख़्ती ही कह रही हूँ ) बरतनी चाहिए थी वो भूल गए हैं | जाने कैसी देखा-देखी की राह पकड़ी कि "हम तो अपने बच्चे को कुछ नहीं कहते"  एक फैशनेबल स्टेटमेंट सा हो गया |  "वी आर लाइक फ्रेंड्स..यू नो" कहते हुए मानो बच्चों के कोई सवाल करने का अपना अधिकार ख़ुद ही छीन रहे हैं |  ऐसे पेरेंट्स भी देख रही हूँ जो जानते हैं कि बच्चे में व्यवहारगत समस्याएं आ रही हैं लेकिन बताने-समझाने पर उलटे टीचर से ही उलझ जाते हैं | बच्चे की इच्छा और ज़रूरत का अंतर समझे बिना स्मार्ट गैजेट्स के तोहफ़े उनके हाथ में दे देते हैं |  

दुनिया के सभी माता-पिता जानते हैं कि उन्हें अपने बच्चों के कमरे में  दरवाज़े पर दस्तक देकर आने जैसी औपचारिकता की शुरुआत कब करनी है |  लेकिन  ऐसी बातें कम उम्र में बच्चे कहने लगें या यूँ कहूं कि पेरेंट्स को बच्चों से ये आदेश मिलने लगें तो दोस्ती नहीं सख़्ती से सवाल किये जाने की भी  ज़रूरत  है | स्पेस के नाम पर बच्चे आपके संवाद से बचने लगें तो क्यों और किसलिए वाले प्रश्न जरूरी हो जाते हैं | मुझे लगता है कि माँ-बाप बने दो इंसानों का हक़ भी है और उत्तरदायित्व भी कि वे बच्चों को सही गलत का फ़र्क़ समझाएं । गलती पर रोकें-टोकें।  नैतिक ज्ञान और भविष्य को बेहतर बनाने के लेक्चर भी सुनाएँ। ज़रूरी हो तो कुछ  बंदिशे भी लगायें ।  

बड़ों को समझना होगा कि दोस्ताना वातावरण में बच्चे  से खुलकर बात करने और उनके हर तरह के नकारात्मक व्यवहार को ख़ुशी-ख़ुशी अपना लेने में बहुत फ़र्क़ होता है |  मैं ये तो नहीं कहूँगी कि बच्चों को डरा-धमका कर रखें लेकिन आज के समय में  ख़ुदअभिभावक बच्चों से डरे-डरे से रहते हैं, ये कैसी परवरिश है ? नई पीढ़ी को बांधना नहीं है लेकिन थामने के लिए भी कुछ तो नियम और सीख देनी ही होगी | दोस्त बनकर आप देर रात घर लौटे बच्चे से कितने सवाल कर पायेंगें ?  माँ-बाप बनकर घर और ज़िन्दगी के नियम-क़ायदे समझाए बिना आपकी बात सुनी तक ना जाएगी | मुझे  लगता है दोस्त बनकर रहने के नाम पर ऐसे हालात सही नहीं कहे जा सकते जिनमें बच्चों को सब कुछ देने की जद्दोज़हद में अपनी ज़िन्दगी जीना भूल रहे पेरेंट्स की रहनुमाई भी उन्हें स्वीकार ना हो |  


 

15 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (06-08-2017) को "जीवन में है मित्रता, पावन और पवित्र" (चर्चा अंक 2688 पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आभार

डॉ. मोनिका शर्मा said...

बहुत शुक्रिया

ब्लॉग बुलेटिन said...

ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " भारतीय छात्र और पूर्ण-अंक “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

अपर्णा वाजपेयी said...

अभिभावकों के लिये ये जरुरी सीख है .

Onkar said...

सही और सटीक लेख

Jyoti Dehliwal said...

बिल्कुल सही कहा मोनिका। हम बच्चों के दोस्त तो बन गए पर शायद अभिभावक बनना भूल गए।

'एकलव्य' said...

मेरा मानना है इन सब के लिए हम माता -पिता काफी हद तक स्वयं जिम्मेदार हैं। हम उन्हें बचपन से ही पाश्चात्य सभ्यता की ओर अग्रसर होने की सीख दे रहे हैं। बेटा अंग्रेजी में बात करो ,बेटा हिंदी में बात मत करो ,यदि वो अब अंग्रेजी ढंग सीख रहें हैं तो इनमें उनका क्या दोष? हमारी संस्कृति सीखाने के एवज में वे पाश्चात्य संस्कृति सीख रहे हैं इनमें उनका क्या दोष ? हम बाते बड़ी -बड़ी करते हैं हम स्वयं से पूछे ! हम अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाते हैं ,सरकारी स्कूलों में नहीं क्यूँ ? ये सभी आंग्ल सभ्यता की देन है जो हम चाहते थे ,वे सीख रहे हैं! अतः सर्वप्रथम हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी न कि बच्चों की। तार्किक लेख आभार,"एकलव्य"

Lokesh Nashine said...

बहुत उम्दा प्रस्तुति

Sudha Devrani said...

बहुत सही लिखा है आपने....दोस्त तो बाहर भी मिल जायेंगे बच्चों को ....माँ बाप का उत्तरदायित्व सिर्फ माँ बाप ही निभा सकते हैं...
सही गलत का फर्क समझाने के लिए माँ बाप बने रहना ही उचित होगा....

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

विडंबना तो यह है कि अधिकाँश अभिभावक खुद ही इस लत से ग्रसित हैं

दिगम्बर नासवा said...

बिलकुल सही कहा है ... दोस्त तो ठीक है पर माँ बाप का दायित्व साथ ही रहना जरूरी है ... हद तो हर चीज़ की ठीक नहीं होती ... संयमित व्यवहार ... खुलापन जरूरी है पर इस तरह की बच्चों को लगे की कोई उनका सही मार्ग-दर्शक भी है ... पर ये काम मुश्किल जरूर है आज के दौर में ...

गिरधारी खंकरियाल said...

Rightly said, keep parenting with complete responsubilty.

Atoot bandhan said...

बिलकुल सही , बच्चों से दोस्ती करने का मतलब ये नहीं की वो हमारे हमारे हमउम्र हो गए हैं |दोस्ती का अर्थ यहाँ यह है की वो अपने मन की बात बिना किसी भय के कह सकें पर यह जरूरी है ही बच्चे बड़ों की सलाह लें व् बड़े जहाँ जरूरी हो वहाँ बड़े उन्हें अधिकार पूर्वक रोके भी | आपने आज के युग की बहुत बड़ी समस्या को उठाया है | अच्छा आलेख ...वंदना बाजपेयी

swarnlata said...

बहुत अच्छा आलेख है

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